विकास में परिवार की शिक्षा का महत्वपूर्ण प्रभाव
बालक के विकास में परिवार की शिक्षा का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। आज परिवार से मिलने वाली शिक्षा में अनेक कमियाँ आ गयी है अतः किसी भी घर को (विशेषतः भारतीय घर कों) शिक्षा का प्रभावशाली साधन बनाने के लिए तथा कमियों को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपायों को अपनाया जा सकता है -
(1) भौतिक वातावरण- सामान्य भारतीय घर के भौतिक वातावरण-सम्बन्धी प्रभाव को स्वस्थ नहीं कहा जा सकता है। एक साधारण मनुष्य के घर की स्थिति, उसका पड़ोस, उसके कमरे, उसका फर्नीचर आदि बहुत ही बुरा दृश्य प्रस्तुत करते हैं। यह बालक के स्वास्थ्य और विकास के लिए तनिक भी उपयुक्त नही है। अतः भारतीय घरों के भौतिक वातावरण में परिवर्तन लाना अति आवश्यक है। जब वातावरण से अवांछनीय बातों को निकाल दिया जायेगा, तभी बालकों को आगे नैतिक और मानसिक विकास के लिए उचित वातावरण मिलेगा।
( 2 ) मानसिक वातावरण- यह कहना अनुचित न होगा कि भारत में ऐसे घर बहुत ही कम है, जहाँ बालकों को अपनी बुद्धि के विकास के लिए उपयुक्त मानसिक वातावरण मिलता है। इसके दो प्रमुख कारण है- (1) आभिभावकों की निरक्षरता, और (2) निर्धनता। अतः वे अपने बच्चों के लिए उपयुक्त पुस्तकों, सचित्र और साप्ताहिक पत्रिकाओं, समाचार पत्रों आदि की बात सोचते ही नहीं। इस स्थिति में सरकार का कर्तव्य हो जाता है कि वह स्थान-स्थान पर पुस्तकालय और वाचनालय खोले। ये पुस्तकालय और वाचनालय प्रत्येक घर में पुस्तकों और पत्रिकाओं को क्रम से भेजने का प्रबन्ध करें। ऐसा किये विना बालक अपने घर में उपयुक्त मानसिक वातावरण के प्रभावों से वंचित रहेंगे।
( 3 ) सामाजिक वातावरण- आमतौर पर भारत में ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों में सामाजिक वातावरण सम्बन्धी प्रभाव बहुत ही अस्वस्थ है। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों के बालकों को एक निश्चित हानि का सामना करना पड़ता है। ग्रामीण बालक पुराने का व्यवहार करने लगता है और शहरी बालक पर उसके साथियों का बुरा प्रभाव पड़ता है। इन दोषों को दूर करने के लिए ऐसे वातावरण का निर्माण आवश्यक है जो स्वस्थ हो और जिस पर पड़ोस का अच्छा प्रभाव हो तभी बालकों को सामाजिक वातावरण से अधिकतम लाभ हो सकता है। साथ ही जाति प्रथा एवं साम्प्रदायिकता के दोषों को दूर करने का प्रयास किया जाये।
(4) पैतृक विचार- बालक अपने माता-पिता से कुछ क्षमताएं और योग्यताएं प्राप्त करता है। अधिकांश भारतीय माता-पिता निरक्षर होने के कारण शिक्षित माता-पिता की क्षमताओं और योग्यताओं का दावा नही कर करते हैं। अतः घर को शिक्षा का प्रभावशाली साधन बनाने के लिए आवश्यक है कि भारतीय परिवारों से निरक्षरता को दूर किया जाये। माता-पिता को एक निश्चित स्तर तक शिक्षा दी जाये। साथ ही उन्हें पारिवारिक सदस्यता में प्रशिक्षण दिया जाये।
(5) सौन्दर्यात्मक वातावरण- रूप का सौन्दर्य मस्तिष्क को प्रभावित करता है अतः बालक के मस्तिष्क पर उचित प्रकार का प्रभाव डालने के लिए उसके घर में सुन्दर वस्तुओं से युक्त वातावरण होना चाहिए। प्लेटो का कथन है कि "यदि आप चाहते हैं कि बालक सुन्दर वस्तुओं की प्रशंसा और निर्माण करे, तो उसके चारों ओर सुन्दर वस्तुएं प्रस्तुत कीजिए।
( 6 ) बालक के रहने एवं पढ़ने के स्थान का प्रभाव- बालक की शिक्षा के लिए पढ़ने का स्थान साफ-सुथरा, हवादार, रोशनीदार एवं अच्छा होना आवश्यक है इसका बालक की पढ़ाई पर काफी अधिक प्रभाव पड़ता है।
(7) भेद-भाव रहित व्यवहार का प्रभाव- बालकों के माता-पिता को चाहिए कि वे सभी बालको के साथ एक-सा व्यवहार करें। सबको एक समान समझे। न तो छोटे-बड़े का अन्तर रखें और न किसी के साथ अधिक सहानुभूति दिखलायें। भाई- बहन में भी अन्तर नही रखन चाहिए। इस प्रकार अन्तर रखने का प्रभाव यह होता है जिस बालक के साथ बुरा व्यवहार होता है वह दुःखी होता है। इस प्रकार के बालक में बुरी आदतें भी जन्म ले सकती है।
(8) ज्ञानेन्द्रियों द्वारा शिक्षा - छोटे बालकों को शिक्षा देने में ज्ञानेन्द्रियों के उपयोग पर ध्यान देना आवश्यक है। इसी उद्देश्य से मॉण्टेसरी एवं किंडर-गार्टन पट्टित में उक्त उद्देश्य की पूर्ति की जाती है। इन स्कूलों में विभिन्न उपकरणों के आधार पर बालकों को ज्ञान दिया जाता है।
(9) बालकों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार- बालकों के माता-पिता को बालकों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। बालक प्रेम के भूखे होते हैं अतः यह आवश्यक है कि उनके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाये जिन बच्चों के माता-पिता सदैव डाँटते रहते हैं वह बच्चे चरित्रहीन बन जाते हैं। वे अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन नहीं करते हैं बालक भावात्मक एवं मानसिक दृष्टि से बहुत ही कोमल होते हैं।
(10) मनोवैज्ञानिक ढंग से व्यवहार- परिवार में बालक के माता-पिता को चाहिए कि वे बालक के साथ मनोवैज्ञानिक ढंग से व्यवहार करें। उन्हें बाल-मनोविज्ञान का ज्ञान होना चाहिए। वे बालकों की रूचियों, क्षमताओं एवं जरूरतों आदि से परिचित रहें। वे अपने बच्चों को उनकी रूचियों के अनुसार ही शिक्षा देने का प्रबन्ध करें। बालक के माता-पिता को बाल-मनोविज्ञान का ज्ञान होना चाहिए।
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