संगम युगीन धर्म की चर्चा
संगम युगीन धर्म-संगम युगीन धर्म पर उत्तर भारतीय धर्म का प्रभाव स्पष्टतः दिखाई पड़ता है। इस धर्म को उत्तर से दक्षिण भारत में फैलाने का श्रेय अगस्त्य तथा कौण्डिन्य ऋषि को है। दक्षिण भारत का सबसे प्रमुख देवता मुरुगन या सुब्रह्मण्यम् था। उत्तर भारत के स्कन्द-कार्तिकेय से इसका तादात्म्य स्थापित किया जाता है। मुरुगन का दूसरा नाम बेलन है। बेलन का सम्बन्ध बेल से है जिसका अर्थ ब है, यह इस देवता का प्रमुख अस्व है। मुरुगन का प्रतीक मुर्गा (कुक्कुट) है और इन्हें पर्वत शिखर पर क्रीड़ा करना अत्यन्त प्रिय है। इनकी पत्नियों में एक कुरवस नामक पर्वतीय जनजाति की स्त्री भी है। आदिच्चनलूर से. प्राप्त शव-कलश के साथ कांसे का मुरुगन भी प्राप्त हुआ है। मुरुगन की उपासना में वेलनाडल नामक नृत्य किया जाता था।
संगम युग में इन्द्र का भी स्थान महत्वपूर्ण था। पुहार के वार्षिक उत्सव में इन्द्र की विशेष प्रकार की पूजा होती थी। इन्द्र के मन्दिर को बजक्कोट्टम कहा जाता था पशुचारण जाति के लोग कृष्ण की उपासना करते थे इसके अतिरिक्त विष्णु, शिव, बलराम, सरस्वती आदि देवताओं का भी उल्लेख मिलता है । संगम साहित्य में विष्णु का तमिल रूपान्तर तिरुमल' मिलता है। पवित्रुपत्तु से ज्ञात होता है कि विष्णु की पूजा में तुलसी तथा घण्टे का उपयोग किया जाता था। लोग मन्दिर में उपासना करते थे। अभिलेखों में विष्णु के मन्दिर को विनागर कहा गया है। अनेक लोग सन्यासी का जीवन व्यतीत करते थे जीववाद, टोटमवाद, बलि-प्रथा भी इस युग में प्रचलन में आई। कोर्रवल बिजय की देवी थी। लोग मरियम्मा (परशुराम की मां) की पूजा में बकरे की बलि चढ़ाते थे। मणिमेखले में कापालिक शैव सन्यासियों की चर्चा है। इस युग के लोग कर्म, पुनर्जन्म, भाग्यवाद पर विश्वास करते थे। शवों को दफनाने तथा जलाने की प्रथा प्रचलित थी।
संगम युग में बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म का भी प्रसार दिखाई पड़ता है।
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